एक छोटा सा बोर्ड वहां लगा है, जिसपर लिखा है-थाना कुकदुर सीमा समाप्त।  पीछे मुड़ कर देखें तो एक उजाड़ और वृक्ष हीन धरती नजर आती है। अगला कदम आप मध्यप्रदेश की सीमा में बढाते हैं और साल के घने जंगल में धंसते चले जाते हैं। भवानी प्रसाद मिश्र बरबस याद आ जाते हैं- सतपुड़ा के घने जंगल।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बैगा या अनपढ़ ग्रामीणों में अगर आपको अंतर समझना है तो ज़्यादा दूर नही बस राजधानी रायपुर से 100-150 कि.मी. दूर कवर्धा के पंडरिया इलाक़े मे चले जाएँ … 

म.प्र. के बैगा अपना जंगल इसलिए बचा रहे है.. रहवास पट्टा या हैबिटेट राइट की लड़ाई उन्होंने इसलिए लड़ी कि कल को अगर उनके इलाक़े मे कान्हा की तरह कोई राष्ट्रीय उध्यान आए तो उनको यह अधिकार रहे कि वह मना कर सके …उन लोगो ने अपने अधिकार को समझा और उसका सही तरीक़े से इस्तेमाल किया, जंगल के साथ साथ अपने अस्तित्व और अपने व अपनी आने वाली पीढ़ी की भी रक्षा करी.

वही छ.ग. के वासी … अपने इलाक़े के जंगल को इसलिए काटा, इसलिए अतिक्रमण किया कि उन्हें अगर कभी वहाँ से हटाया जाए, कान्हा – अचानकमार के बीच के गलियारे को बचाने के लिए कभी कोई क़ानून आए तो इस जंगल, ज़मीन का मुआवज़ा उन्हें मिल जाए 

अगर वैरियर एलविन आज की तारीख़ मे ज़िंदा होते तो बैगा इलाक़े की यह दुर्दशा देख कर पता नही क्या करते…वही बैगा आदिवासी जिन्होंने उनके जंगल के ज्ञान और समझ को एक नई दिशा दी …जिन्होंने उन्हें बताया कि जंगल मे तीतर के घोंसले मे अंडों की संख्या देख कर आप पता कर सकते हो कि बारिश कितने महीने होने वाली है …निश्चिंत हो सकते हो कि तीतर के घोंसले मे अगर चार अंडे है तो चार महीने अच्छी बारिश होगी और उस हिसाब से आप अपनी बेवर खेती के लिए बीजों की संख्या तय कर सकते हो …वही बैगा आदिवासी कुछ लालच और कुछ राजनीति से प्रेरित हो कर अपने ही अस्तित्व पर कुल्हाड़ी चला रहे है 

वह बैगा आदिवासी जिन्होंने वैरियर एलविन को उनकी पहचान , उनका अस्तित्व दिया आज अपने ही अस्तित्व पर सवालिया निशान ले कर आगे बढ़ने की ख़ुमारी मे  पीछे चले जा रहे है..ख़ुद को ही मिटाने मे लगे है

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